मुस्लिम फ़िरक़ाबंदी का बढ़ना — एक गहन विश्लेषण
परिचय
मुस्लिम उम्मत आज विश्व स्तर पर कई चुनौतियों का सामना कर रही है, लेकिन इनमें से सबसे गंभीर और आंतरिक समस्या फ़िरक़ाबंदी का तेज़ी से बढ़ना है। यह विभाजन न केवल धार्मिक मतभेदों तक सीमित है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी गहरा प्रभाव डाल रहा है। बीते कुछ दशकों में—विशेषकर डिजिटल युग में—यह मतभेद नफरत, टकराव और अलगाव की शक्ल अख्तियार कर चुके हैं। मुसलमान, जिन्हें कुरआन में एक "उम्मत" के रूप में संबोधित किया गया है, आज विभिन्न फ़िरकों जैसे शिया, सुन्नी, वहाबी, देवबंदी, बरेलवी आदि में बँटे हुए हैं, और यह बंटवारा दिलों की दूरी में तब्दील हो गया है।
इस्लाम में एकता का महत्व
इस्लाम का मूल संदेश एकता और भाईचारे पर आधारित है। कुरआन और सुन्नत दोनों ही मुसलमानों को बार-बार एकजुट रहने की हिदायत देते हैं। एकता को इस्लाम में केवल सामाजिक आवश्यकता नहीं, बल्कि धार्मिक फर्ज माना गया है। अल्लाह तआला कुरआन में इरशाद फरमाता है:
وَاعْتَصِمُوا بِحَبْلِ اللَّهِ جَمِيعًا وَلَا تَفَرَّقُوا(سورة آل عمران)
और अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से थामे रहो और आपस में फूट मत डालो। (सूरह आल-इमरान: 103)
यह आयत मुसलमानों को एकजुट होकर कुरआन और सुन्नत पर अमल करने की ताकीद करती है। इसी प्रकार, एक और आयत में अल्लाह तआला इरशाद फरमाता है:
إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ إِخْوَةٌ فَأَصْلِحُوا بَيْنَ أَخَوَيْكُمْ وَاتَّقُوا اللَّهَ لَعَلَّكُمْ تُرْحَمُونَ(سورة الحجرات)
मोमिन तो आपस में भाई-भाई हैं, सो अपने दो भाइयों के बीच सुलह करा दो और अल्लाह से डरो ताकि तुम पर रहम किया जाए। (सूरह अल-हुजुरात: 10)
यह आयत मोमिनों को भाईचारे के रिश्ते में बाँधती है और मतभेदों को सुलझाने की हिदायत देती है। कुरआन विभाजन को कमजोरी का कारण बताता है, जैसे के अल्लाह तआला इरशाद फरमाता है :
وَلَا تَنَازَعُوا فَتَفْشَلُوا وَتَذْهَبَ رِيحُكُمْ(سورة الأنفال)
और अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा का पालन करो, और आपस में झगड़ा मत करो, वरना तुम कमज़ोर पड़ जाओगे और तुम्हारी ताक़त खत्म हो जाएगी। और सब्र करो, निस्संदेह अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है।” (सूरह अल-अनफ़ाल: 46)
इसके अलावा, कुरआन में फ़िरक़ाबंदी की स्पष्ट निंदा की गई है:
وَلَا تَكُونُوا مِنَ الْمُشْرِكِينَ مِنَ الَّذِينَ فَرَّقُوا دِينَهُمْ وَكَانُوا شِيَعًا كُلُّ حِزْبٍ بِمَا لَدَيْهِمْ فَرِحُونَ(سورة الروم)
और उन मुश्रिकों में से न हो जाना जिन्होंने अपने दीन को टुकड़े-टुकड़े कर डाला और गिरोह-गिरोह बन गए। हर गिरोह उसी चीज़ पर खुश है जो उसके पास है। (सूरह अर-रूम: 31-32)
यह आयत उन लोगों की निंदा करती है जो दीन को विभाजित करते हैं और अपने फ़िरके पर खुश होते हैं। इसी संदर्भ में एक और आयत है:
إِنَّ الَّذِينَ فَرَّقُوا دِينَهُمْ وَكَانُوا شِيَعًا لَّسْتَ مِنْهُمْ فِي شَيْءٍ(سورة الأنعام)
बेशक जिन लोगों ने अपने दीन को टुकड़े-टुकड़े कर डाला और गिरोह-गिरोह बन गए, तू (ऐ नबी) उनका कुछ नहीं। (सूरह अल-अनआम: 159)
रसूलुल्लाह ﷺ ने भी उम्मत की एकता पर विशेष जोर दिया। एक हदीस में आप ने फरमाया:
المُؤْمِنُ لِلْمُؤْمِنِ كَالْبُنْيَانِ يَشُدُّ بَعْضُهُ بَعْضًا(صحيح البخاري)
मोमिन दूसरे मोमिन के लिए एक इमारत की तरह है, जिसका एक हिस्सा दूसरे हिस्से को मजबूत करता है। (सहीह बुख़ारी)
रसूलुल्लाह ﷺ ने इरशाद फरमाया:
لَا تَبَاغَضُوا وَلَا تَحَاسَدُوا وَلَا تَدَابَرُوا وَكُونُوا عِبَادَ اللَّهِ إِخْوَانًا(صحيح البخاري)
अर्थ: तुम आपस में बुग्ज़ न रखो, हसद न करो, एक-दूसरे से मुँह न मोड़ो और अल्लाह के बंदे भाई-भाई बनकर रहो। (सहीह बुख़ारी)
ये आयतें और हदीसें स्पष्ट करती हैं कि इस्लाम में एकता मूलभूत सिद्धांत है, जबकि फ़िरक़ाबंदी शैतान की साजिश है।
फ़िरक़ाबंदी के ऐतिहासिक कारण
इस्लाम में फ़िरक़ाबंदी की शुरुआत बहुत पहले के दौर में मिलती है। रसूलुल्लाह ﷺ के दुनिया से कूच कर जाने के बाद, ख़िलाफ़त यानी अगला नेता कौन हो—इस बात पर लोगों में अलग-अलग राय बन गई। यही आगे चलकर सुन्नी और शिया फ़र्क का कारण बना। सहाबा के बीच जो मतभेद थे, वे ज़्यादातर राजनीतिक थे, धार्मिक नहीं। बाद में अलग-अलग इलाकों की अपनी संस्कृतियों, सियासी लालसाओं और बाहरी असर ने इन मतभेदों को और बढ़ा दिया। जैसे उमय्या और अब्बासी दौर में सियासी झगड़ों ने धर्म का रंग ले लिया और इससे फ़िरक़ाबंदी और गहरी हो गई।
अंग्रेज़ों के ज़माने में, और दूसरे यूरोपीयों के राज में, ‘फूट डालो और राज करो’ (Divide and Rule) की चाल चली गई। इससे मुसलमानों में फ़िरक़ाबंदी बहुत बढ़ी। मिडल ईस्ट में जब उस्मानी सल्तनत (Ottoman Empire) टूट गई, तो क़ौमियत (राष्ट्रवाद) बढ़ने लगी, और इससे मुसलमानों की एकता कमज़ोर पड़ गई।
आजादी के बाद कई मुल्कों में सियासी पार्टियों और सरकारों ने अपने मतलब के लिए अलग-अलग फ़िरकों को बढ़ावा दिया, जिससे ये बटवारे और गहरे हो गए।”
कुरआन इस तरह की पुरानी बँटवारे वाली प्रवृत्ति की सख्त निंदा करता है। अल्लाह तआला इरशाद फरमाता है :
وَمَا كَانَ النَّاسُ إِلَّا أُمَّةً وَاحِدَةً فَاخْتَلَفُوا(سورة يونس)
लोग तो एक ही उम्मत थे, फिर उन्होंने इख्तिलाफ पैदा कर लिया। (सूरह यूनुस: 19)
यह आयत बताती है कि एकता तो फ़ितरी (स्वाभाविक) है, और बँटवारा इंसानों की बनाई हुई चीज़ है।
आधुनिक कारण
आज के दौर में फ़िरक़ाबंदी बढ़ने की बड़ी वजहें सोशल मीडिया, ग्लोबलाइजेशन और सियासी दख़लअंदाज़ी हैं। फेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म मतभेदों को पूरी दुनिया में फैला देते हैं। छोटी-सी बात या कोई वीडियो वायरल होकर लाखों लोगों तक पहुँच जाता है, जिससे नफ़रत बढ़ती है। सोशल मीडिया के ‘इको सिस्टम’ में लोग ज़्यादातर वही बातें देखते हैं जो वे खुद मानते हैं, इससे उनका पक्षपात और मज़बूत हो जाता है।”
सियासी वजहों में यह भी शामिल है कि कुछ मुल्क—जैसे सऊदी अरब और ईरान—अपने असर को बढ़ाने के लिए अलग-अलग फ़िरकों को सपोर्ट करते हैं। दहशतगर्द और चरमपंथी गिरोह, जैसे आईएसआईएस, ने फ़िरक़ाबंदी को हिंसा का रूप दे दिया है।
आर्थिक नाइंसाफ़ी और शिक्षा की कमी भी बड़ी वजहें हैं, क्योंकि कम पढ़े-लिखे लोग जल्दी भड़काए जाते हैं और उन्हें ग़लत रास्ते पर डालना आसान होता है।”
फ़िरक़ाबंदी के प्रभाव
फ़िरक़ाबंदी का असर कई तरह से पड़ता है। समाज में यह परिवारों और मोहल्लों को बाँट देती है। शादियाँ, जलसे और मस्जिदें भी फ़िरकों के हिसाब से अलग हो जाती हैं।
सियासत में मुसलमान और कमज़ोर हो जाते हैं—इसी वजह से फ़िलिस्तीन जैसे मसलों पर भी मिलकर कदम उठाना मुश्किल हो जाता है।
युवाओं पर इसका सबसे बुरा असर पड़ता है। वे कन्फ्यूज़ हो जाते हैं और कई बार दीन से ही दूर होने लगते हैं।
आर्थिक तौर पर भी नुक़सान होता है, क्योंकि आपसी मदद कम हो जाती है और तरक्की रुक जाती है।
दुनिया के लेवल पर इस्लामोफोबिया बढ़ता है, क्योंकि बाहर की दुनिया मुसलमानों को आपस में टूटा हुआ देखती है।”
कुरआन में अल्लाह तआला इरशाद फरमाता है :
وَأَطِيعُوا اللَّهَ وَرَسُولَهُ وَلَا تَنَازَعُوا فَتَفْشَلُوا(سورة الأنفال)
अर्थ: अल्लाह और उसके रसूल की इताअत करो और आपस में झगड़ा न करो वरना कमजोर हो जाओगे। (सूरह अल-अनफ़ाल: 46)
इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार समाधान
समाधान के लिए कुरआन और सुन्नत की ओर रुख करना जरूरी है। सबसे पहले, मतभेदों को स्वीकार करें लेकिन उन्हें दुश्मनी में न बदलें। सहाबा का उदाहरण लें, जहाँ मतभेद थे लेकिन एकता बनी रही।
दूसरे, शिक्षा और इल्म पर जोर दें। उलमा को संवाद बढ़ाना चाहिए। सोशल मीडिया पर जिम्मेदाराना व्यवहार सिखाएँ।
तीसरी बात यह कि सियासी दख़लअंदाज़ी का विरोध किया जाए और पूरी उम्मत की एक साझा पहचान पर ध्यान दिया जाए।”
रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया:
مَثَلُ المُؤْمِنِينَ فِي تَوَادِّهِمْ، وَتَرَاحُمِهِمْ، وَتَعَاطُفِهِمْ، مَثَلُ الجَسَدِ؛ إِذَا اشْتَكَىٰ مِنْهُ عُضْوٌ، تَدَاعَىٰ لَهُ سَائِرُ الجَسَدِ بِالسَّهَرِ وَالحُمَّىٰ(صحيح مسلم)
ईमान वाले (मुसलमान) आपस के प्यार, रहम और आपसी हमदर्दी में एक शरीर जैसे हैं। जब शरीर के किसी एक हिस्से को दर्द होता है, तो पूरा शरीर जागता है और बुखार में पड़ जाता है। उसी तरह, एक मुसलमान को तकलीफ़ हो, तो दूसरे मुसलमानों को भी उसकी फ़िक्र होनी चाहिए। (सहीह मुस्लिम)
एक और हदीस में मज़कूर है:
إِنَّ اللَّهَ يَرْضَى لَكُمْ ثَلَاثًا وَيَكْرَهُ لَكُمْ ثَلَاثًا فَيَرْضَى لَكُمْ أَنْ تَعْبُدُوهُ وَلَا تُشْرِكُوا بِهِ شَيْئًا وَأَنْ تَعْتَصِمُوا بِحَبْلِ اللَّهِ جَمِيعًا وَلَا تَفَرَّقُوا(صحيح مسلم)
अल्लाह तुम्हारे लिए तीन बातें पसंद करता है... और एकता रखो और फूट न डालो। (सहीह मुस्लिम)
ये शिक्षाएँ समाधान का आधार हैं।
निष्कर्ष
फ़िरक़ाबंदी आज मुस्लिम उम्मत की सबसे बड़ी कमजोरियों में से एक बन चुकी है, जिसने दिलों में दूरी और समाज में बिखराव पैदा कर दिया है। लेकिन इसका असली समाधान इस्लाम की साफ़ और मजबूत शिक्षाओं में छुपा है, जो मुसलमानों को एकता, भाईचारे और मोहब्बत की तरफ बुलाती हैं। जब मुसलमान आपसी मतभेदों को पीछे छोड़कर एक उम्मत बनकर खड़े होंगे, तभी असली ताकत और इज़्ज़त पैदा होगी। कुरआन और सुन्नत दोनों ही मुसीबत के वक्त मिलकर चलने और एक-दूसरे की मदद करने का हुक्म देते हैं। इसलिए मुसलमानों को चाहिए कि वे अपनी साझा पहचान, साझा ईमान और साझा उद्देश्यों को मज़बूत करें। अगर हम अपने फ़र्कों को बढ़ाने के बजाय अपनी समानताओं को अपनाएँ, तो उम्मत फिर से उभर सकती है। यही रास्ता मुसलमानों की तरक़्क़ी, इत्तेहाद और बेहतरीन भविष्य की कुंजी है।
संदर्भ
- सूरह आल-इमरान: 103
- सूरह अल-हुजुरात: 10
- सूरह अल-अनफ़ाल: 46
- सूरह अर-रूम: 31-32
- सूरह अल-अनआम: 159
- सूरह यूनुस: 19
- सहीह बुख़ारी
- सहीह मुस्लिम
लेखक:
सिद्दीक हुसैन, सीनियर सेकेंडरी,क़ुर्तूबा इंस्टीट्यूट, किशनगंज, बिहार
Disclaimer
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3 Comments
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but firqa wariyat kaise khatam kiya jaye iska descriptive jawab nhi bayan kiye asal me jab koi khud ko muslim kahne ke bawajood rasulullah sallallahu alahi wasallam ki shan me gustakhi krte hai allah ki shane aqdas me gustakhiyan krte hai jis wahaj se jo pakke dil ke momin hote hai unhe ye bardasht nhi hota aur isse bhi firqawariyat badhti hai a major problem: gustakhiya aam ho gyi hai jo bolne wale hai unhe aman ka dars dene lag jate hai reply kr sakte to kijiye .
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