इंसानियत का क़ातिल: ग़ज़ा में जारी ज़ुल्म और नेतन्याहू की बर्बरता

ग़ज़ा — अब ये सिर्फ़ नक़्शे का एक टुकड़ा नहीं रहा, बल्कि दर्द, आंसुओं और इंसानियत की सबसे बड़ी कसौटी बन गया है। ग़ज़ा की धूप अब सिर्फ़ गर्मी नहीं देती, बल्कि इसमें मासूमों की चीख़ें और बड़ों की कराहें घुल चुकी हैं। हवा तक में मौत और डर का साया महसूस होता है। ये ज़मीन अब इंसानियत की इम्तेहानगाह बन चुकी है, जहाँ हर घर, हर गली और हर दीवार इंसाफ़ की पुकार कर रही है।

मासूम बच्चे अब खेल के मैदानों में नहीं, बल्कि मलबे और टूटे घरों में कैद हैं। उनकी हँसी अब यादों का हिस्सा बन चुकी है। औरतें अपने बच्चों के साथ महफ़ूज़ ठिकानों की तलाश में हैं, जबकि बूढ़े अपने आख़िरी साँसों तक ज़िंदा रहने की कोशिश कर रहे हैं। ग़ज़ा का ये क़त्लेआम सिर्फ़ जंग का हिस्सा नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए शर्म का सबब है।

संयुक्त राष्ट्र (UN OCHA) की रिपोर्टों के मुताबिक़, ग़ज़ा पट्टी में जारी संघर्ष ने लाखों लोगों की ज़िंदगी तबाह कर दी है। यहाँ करीब दो मिलियन आबादी है, जिनमें आधे से ज़्यादा बच्चे हैं। बिजली, पानी, दवाइयों और बुनियादी ज़रूरतों की कमी पहले ही लोगों की ज़िंदगी को मुश्किल बना चुकी थी। 2025 में ये दर्द और बढ़ गया, जब इस्राईल ने 13 अक्टूबर को हुए संघर्षविराम (Ceasefire) को तोड़ दिया — वो समझौता जो अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की मध्यस्थता में हुआ था।

लेकिन कुछ ही दिनों में इस्राईल ने फिर से ग़ज़ा पर बमबारी शुरू कर दी। इस्राईली वज़ीर-ए-आज़म बेंजामिन नेतन्याहू, जिनकी बेरहमी दुनिया जानती है, ने एक बार फिर साबित कर दिया कि सत्ता और ताक़त के सामने इंसान की जान की कोई कीमत नहीं। आम लोगों और बच्चों को निशाना बनाकर उन्होंने ग़ज़ा को इंसानियत के क़त्लगाह में बदल दिया।

UNRWA और ICRC की ताज़ा रिपोर्टों के मुताबिक़, लगभग साठ हज़ार लोग मारे गए — जिनमें बच्चे, औरतें और बुज़ुर्ग शामिल हैं। एक लाख बीस हज़ार से ज़्यादा लोग ज़ख़्मी हुए, और डेढ़ मिलियन से ज़्यादा लोग बेघर हो गए। स्कूल, अस्पताल और रिहायशी इलाक़े तबाह कर दिए गए। ये मंजर सिर्फ़ ग़ज़ा ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के ज़मीर को हिला देने वाला है।

ग़ज़ा के बच्चों की दास्तानें दिल को चीर देती हैं। आठ साल की आइशा अपने स्कूल और घर के बीच फँस गई थी — घर मलबे में बदल गया, और उसके वालिदीन ज़ख़्मी हो गए। 12 साल का उमर अपने छोटे भाई के साथ अस्पताल में था, जब वहाँ भी बम गिरा। 14 साल का मक़बूल अपने दोस्त के साथ स्कूल जा रहा था — बमबारी में दोस्त की मौत हो गई और अब मक़बूल हर रोज़ उसकी याद में जीता है। 10 साल की फ़ैज़ा अपनी माँ का हाथ पकड़े बमबारी से बचने की कोशिश कर रही थी — उसका छोटा-सा ख़्वाबों का संसार राख हो गया।

ग़ज़ा मीडिया दफ़्तर के मुताबिक़, इस्राईल ने संघर्षविराम का 80 बार उल्लंघन किया। 97 फ़लस्तीनी मारे गए और हज़ारों ज़ख़्मी हुए। इन सबके बीच हवाई हमले, गोलीबारी और मनमानी गिरफ़्तारियाँ जारी रहीं।

अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के मुताबिक़:

  • मौतें: लगभग 60,000
  • ज़ख़्मी: लगभग 1,20,000
  • बेघर: 1.5 मिलियन से ज़्यादा
  • अस्पताल तबाह: 80%
  • स्कूल नष्ट: 45%
  • बुनियादी ज़रूरतों की कमी: 70% आबादी

ये सिर्फ़ सियासी जंग नहीं — ये इंसानियत का इम्तेहान है। बच्चे, औरतें और बुज़ुर्ग अपनी ज़िंदगी की जंग लड़ रहे हैं। ग़ज़ा आज इंसानियत की मिसाल बन चुका है, जो हमें याद दिलाता है कि जब ताक़त हद पार करती है, तो इंसानियत मिट जाती है।

क़ुरआन और हदीस मासूमों की हिफ़ाज़त का हुक्म देते हैं, लेकिन नेतन्याहू और इस्राईल की नीतियाँ इन तालीमों का खुला मज़ाक हैं। ग़ज़ा के लोग, जो अपनी ज़मीन और इज़्ज़त की हिफ़ाज़त कर रहे हैं, असली हक़दार हैं इंसाफ़ के।

दोहरे मापदंड और दुनिया की ख़ामोशी:
अंतरराष्ट्रीय बिरादरी ने बयान तो दिए, मगर अमल कुछ नहीं किया। अमरीका ने इस्राईल का साथ दिया, जबकि संयुक्त राष्ट्र और NGOs ने मदद की कोशिश की, मगर इस्राईली नाकाबंदी और सरहदी पाबंदियों ने राहत का रास्ता रोक दिया।

ग़ज़ा की ये तबाही दुनिया के लिए एक सख़्त सबक़ है — कि अगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ें नहीं उठेंगी, तो इंसानियत का नाम मिट जाएगा। हर दिन वहाँ की ज़िंदगी मौत और भूख के बीच लटक रही है। बच्चों की आँखों में डर है, मगर उम्मीद अभी ज़िंदा है। औरतें अपने बच्चों को बचाने के लिए हर कोशिश कर रही हैं, और बूढ़े आज भी दूसरों की मदद में लगे हैं।

अब वक़्त आ गया है कि दुनिया समझे — ग़ज़ा के लोग सियासत का हिस्सा नहीं, बल्कि इंसाफ़ और इंसानियत की आवाज़ हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को आगे आना होगा — संघर्षविराम लागू करना होगा, मदद पहुँचानी होगी, और मासूमों को इंसाफ़ दिलाना होगा।

ग़ज़ा की धरती अब सिर्फ़ जंग का मैदान नहीं, बल्कि इंसानियत और इंसाफ़ की जंग का प्रतीक बन चुकी है। हमें अपनी आवाज़ बुलंद करनी होगी — बच्चों, औरतों और बेगुनाहों की हिफ़ाज़त के लिए। ये लड़ाई सिर्फ़ सरहदों की नहीं, बल्कि ज़ुल्म के ख़िलाफ़ इंसानियत की लड़ाई है।

संदर्भ (References):

  1. Reuters, Amnesty International Annual Report 2025
  2. UNRWA, ICRC websites
  3. Human Rights Watch & UNHRC Joint Appeal

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