नबी-ए-करीम ﷺ से इश्क़ की अमर धुन: ईद-ए-मीलादुन्नबी और हदाएक-ए-बख़्शिश
परिचय
इस्लाम का सम्पूर्ण संदेश नबी-ए-करीम ﷺ के ज़रिए पूरी इंसानियत तक पहुँचा। आप ﷺ ने अपनी सीरत, अपनी रहमत और अपनी तालीम से दुनिया को यह दिखाया कि इंसानियत की भलाई, इंसाफ़ और मोहब्बत ही असली रास्ता है। कुरआन-ए-मजीद में अल्लाह तआला ने साफ़ फ़रमाया:
وَمَا أَرْسَلْنَاكَ إِلَّا رَحْمَةً لِّلْعَالَمِينَ (अल-अंबिया 21:107)
“और हमने आपको समस्त जहान के लिए रहमत बनाकर भेजा।”
यह आयत इस बात का सबूत है कि नबी ﷺ समूची इंसानियत के लिए रहमत और मोहब्बत का पैग़ाम लेकर आए। यही रहमत और मोहब्बत की भावना हर साल ईद-ए-मीलादुन्नबी ﷺ के मौक़े पर दुनिया भर के मुसलमानों के दिलों में नई रौनक और नयी रूहानी ताज़गी भर देती है।
भारतीय उपमहाद्वीप में इस मोहब्बत का सबसे बुलंद तराना इमाम अहमद रज़ा ख़ाँ बैरेलवी (1856–1921) की नातिया शायरी में सुनाई देता है। अहमद रज़ा ख़ाँ सिर्फ़ एक आलिम और मुफ़्ती ही नहीं, बल्कि एक सच्चे आशिक़-ए-रसूल ﷺ थे। उन्होंने अपनी नातों के ज़रिए उम्मत को यह एहसास दिलाया कि मोहब्बत-ए-नबी ﷺ ईमान का सबसे अहम हिस्सा है।
उनकी नातों का सबसे बड़ा और मशहूर संग्रह हदाएक़-ए-बख़्शिश (बख़्शिश के बाग़ात) है। इस संग्रह में उन्होंने पैग़म्बर ﷺ से अपने इश्क़ को ऐसे अंदाज़ में पेश किया है कि हर शेर दिल को छू जाता है। यह सिर्फ़ शायरी नहीं, बल्कि मोहब्बत-ए-रसूल ﷺ की अमर धुन है।
आज भी जब ईद-ए-मीलादुन्नबी की महफ़िलों में हदाएक़-ए-बख़्शिश के नग़मे पढ़े जाते हैं, तो ईमान वालों के दिलों में एक रूहानी महक दौड़ जाती है। यह साबित करता है कि नबी ﷺ से मोहब्बत एक ऐसा नूर है जो हर दौर में मुसलमानों की ज़िंदगी को रौशन करता आया है और करता रहेगा।
अहमद रज़ा ख़ाँ: विद्वान और शायर
इमाम अहमद रज़ा ख़ाँ बरेलवी (1856–1921) सिर्फ़ एक आलिम-ए-दीन ही नहीं थे, बल्कि वे इस्लामी दुनिया के उन चंद चुनिंदा शख़्सियतों में से हैं जिन्होंने इल्म के हर मैदान में अपनी क़लम चलाई। उन्होंने फिक़्ह, हदीस, तफ़सीर और इल्म-ए-कलाम में गहरी पकड़ रखते हुए ऐसे ऐसे मसाइल हल किए जिनसे पूरी उम्मत को रहनुमाई मिली। उनकी इल्मी क़ाबिलियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी में एक हज़ार से ज़्यादा किताबें और रसायिल लिखीं। इन किताबों में फिक़्ही मसले, अक़ीदा, तसव्वुफ़, इस्लामी समाज की रहनुमाई और उलेमा के लिए मार्गदर्शन सब शामिल हैं।
मगर अहमद रज़ा ख़ाँ की पहचान का एक अहम और दिल को छू लेने वाला पहलू उनकी नातिया शायरी है। नात-ए-रसूल ﷺ लिखना उनकी रूह की आवाज़ थी। उनकी शायरी में नबी ﷺ के लिए गहरा इश्क़, अदब और वफ़ादारी का वह जज़्बा झलकता है जो पढ़ने वालों के दिलों को रूहानी सुकून देता है। उन्होंने अपने कलाम में मोहब्बत-ए-रसूल ﷺ को सिर्फ़ शेरो-शायरी तक सीमित नहीं रखा बल्कि इसे ईमान और अक़ीदे का हिस्सा बना दिया।
उनकी मशहूर नातों का संग्रह हदाएक़-ए-बख़्शिश आज भी दुनियाभर में मुसलमानों के बीच पढ़ा और गुनगुनाया जाता है। इसमें शामिल हर शेर नबी ﷺ की शान-ओ-मक़ाम को बयान करता है और ईमान वालों के दिलों में मोहब्बत की नई लौ जगाता है। यही वजह है कि अहमद रज़ा ख़ाँ की शायरी को सिर्फ़ अदब का हिस्सा नहीं बल्कि मोहब्बत-ए-रसूल ﷺ का अमर तराना माना जाता है।
हदाएक-ए-बख़्शिश: नात का गुलशन
हदाएक़-ए-बख़्शिश सिर्फ़ नातों का एक साधारण संग्रह नहीं, बल्कि यह उर्दू, फ़ारसी और अरबी तीनों ज़बानों में कहे गए अशआर का एक अनमोल ख़ज़ाना है। इसमें लगभग 800 अशआर शामिल हैं, जिनमें हज़रत अहमद रज़ा ख़ाँ ने नबी करीम ﷺ की ज़ात-ए-अक़दस, उनकी सीरत-ए-तय्यिबा और उनकी रहमत-ए-कामिला को बड़े अदब और मोहब्बत के साथ बयान किया है। इन अशआर में न सिर्फ़ शायराना खूबसूरती है, बल्कि इमान की गरमी और अक़ीदा की पुख़्तगी भी पूरी शिद्दत के साथ महसूस होती है।
इस मज़मूए की सबसे मशहूर और मक़बूल नात वह है, जिसका पहला शेर हर महफ़िल, हर महकमे और हर अंजुमन में आज भी गूंजता है:
“मुस्तफ़ा जान-ए-रहमत पे लाखों सलाम,
शम्मा-ए-बज़्म-ए-हिदायत पे लाखों सलाम।”
यह शेर अहमद रज़ा ख़ाँ की शायरी और उनके जज़्बात का बेहतरीन नमूना है। इसमें उन्होंने नबी ﷺ को “जान-ए-रहमत” यानी रहमत का सरचश्मा और “शम्मा-ए-बज़्म-ए-हिदायत” यानी हिदायत की महफ़िल की रौशनी करार दिया है। इस तश्बीह के ज़रिए उन्होंने यह पैग़ाम दिया कि नबी ﷺ पूरी इंसानियत के लिए रहमत बनकर आए और उनका अस्तित्व हर दौर और हर समाज के लिए हिदायत की रोशनी है।
यह शेर सिर्फ़ अदबी खुबसूरती का नमूना नहीं, बल्कि एक अकीदतमंद दिल की दुआ और सलाम का इज़हार है। यही वजह है कि यह तराना सदियों से मुसलमानों की महफ़िलों, मिलाद शरीफ़ की महकमें और नातख़्वानी के मजलिसों में बार-बार पढ़ा जाता है और सुनने वालों के दिलों में मोहब्बत-ए-रसूल ﷺ की शम्मा को रोशन करता रहता है।
नबी-ए-अकरम ﷺ से इश्क़ की अभिव्यक्ति
इमाम अहमद रज़ा ख़ाँ की नातिया शायरी नबी-ए-अकरम ﷺ से बेपनाह मोहब्बत और असीम इश्क़ का आईना है। उनकी नातों में नबी ﷺ की जामिआ शख्सियत का हर पहलू झलकता है। कभी वह उनकी जमाल यानी हुस्न और खुबसूरती का बयान करते हैं, जिसमें नबी ﷺ की सूरत-ए-मुबारक की चमक को रौशन चाँद से भी बढ़कर दिखाया गया है। कभी वह उनके कमाल यानी श्रेष्ठता और अज़मत का तज़्किरा करते हैं, जो इल्म, हिकमत और रहनुमाई में समस्त इंसानियत के लिए नमूना है।
इसी तरह, उनकी नातों में नबी ﷺ की शफ़क़त और रहमत का भी गहरा असर मिलता है। अहमद रज़ा बार-बार इस बात पर ज़ोर देते हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ की रहमत सिर्फ़ मुसलमानों के लिए नहीं, बल्कि तमाम आलम के लिए है। यही एहसास कुरआन की उस आयत से मेल खाता है:
وَمَا أَرْسَلْنَاكَ إِلَّا رَحْمَةً لِّلْعَالَمِينَ (अल-अंबिया 21:107)
“और हमने आपको समस्त जहान के लिए रहमत बनाकर भेजा।”
अहमद रज़ा की नातों में यह नज़र आता है कि नबी ﷺ की महिमा सिर्फ़ तारीफ़ का विषय नहीं, बल्कि इबादत के क़रीब का दर्जा रखती है। उनके शेर सुनने वाले को महज़ साहित्यिक आनंद नहीं देते, बल्कि रूहानी सुकून भी बख़्शते हैं। यही वजह है कि उनकी नातें आज भी महफ़िलों में पढ़ी जाती हैं और इश्क़-ए-रसूल ﷺ की लौ को तेज़ करती रहती हैं।
ईद-ए-मीलादुन्नबी और हदाएक-ए-बख़्शिश
बर-ए-सग़ीर के मुसलमानों के लिए ईद-ए-मीलादुन्नबी ﷺ का दिन इश्क़ और अकीदत के इज़हार का सबसे अहम मौक़ा है। इस दिन जगह-जगह महफ़िल-ए-मिलाद का इनक़ाद होता है, जिसमें नबी-ए-अकरम ﷺ की सीरत, उनकी रहमत और उनकी अज़मत का बयान किया जाता है। इन महफ़िलों की रूहानी फिज़ा में नातख़्वानी का खास रिवाज है, और इसमें सबसे ज़्यादा जिस मज़मूए से नातें पढ़ी जाती हैं, वह है हदाएक-ए-बख़्शिश।
हदाएक-ए-बख़्शिश की नातें न सिर्फ़ महफ़िल की ज़ीनत बनती हैं, बल्कि शिरकत करने वालों के दिलों को मोहब्बत-ए-रसूल ﷺ से लबरेज़ कर देती हैं। जब सामूहिक तौर पर “सलाम” पढ़ा जाता है और दुरूद-ओ-सलाम की आवाज़ें गूंजती हैं, तो पूरा माहौल रूहानी कैफ़ियत में डूब जाता है। यह कैफ़ियत महज़ एक जज़्बाती लम्हा नहीं, बल्कि ईमान वालों के दिलों में नबी ﷺ की मोहब्बत को ताज़ा करने और उनके साथ अपने रिश्ते को मज़बूत करने का ज़रिया होती है।
बर-ए-सग़ीर के शहरों और क़स्बों में ईद-ए-मीलादुन्नबी की रात को मस्जिदें और गलियाँ सजाई जाती हैं, जुलूस-ए-मोहम्मदी निकलते हैं, और महफ़िलों में अहमद रज़ा ख़ाँ की लिखी नातें गूँजती हैं। इन अशआर की तासीर यह होती है कि सुनने वाले की आँखें अश्कबार हो जाती हैं और दिल मोहब्बत व अकीदत से सरशार हो जाता है।
इस तरह हदाएक-ए-बख़्शिश न सिर्फ़ एक अदबी और शायरी का शहकार है, बल्कि ईद-ए-मीलादुन्नबी की महफ़िलों में मोहब्बत-ए-रसूल ﷺ का ज़रिया और इश्क़-ए-नबी ﷺ का पैग़ाम है।
आज के दौर में अहमियत
आज का दौर भौतिकवाद और उपभोक्तावाद (Materialism & Consumerism) का दौर है। इंसान की तवज्जोह ज़्यादा से ज़्यादा दुनियावी आराम, शोहरत और दौलत की तरफ़ हो गई है। नतीजा यह है कि उसके दिल से इंसानियत, जज़्बात और रूहानियत धीरे-धीरे कम होती जा रही है। ऐसे वक़्त में इमाम अहमद रज़ा ख़ाँ की नातिया शायरी हमारे सामने एक ताज़ा हवा के झोंके की तरह आती है।
उनकी नातें हमें यह हकीकत याद दिलाती हैं कि असली कामयाबी और असल सुकून दुनियावी दौलत या तिजारती तरक्की में नहीं, बल्कि नबी-ए-करीम ﷺ की मोहब्बत और उनकी सुन्नत की पैरवी में है। जब कोई शख्स मोहब्बत-ए-रसूल ﷺ को दिल में बसाता है और उनकी सीरत को अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बनाता है, तभी उसका दिल असल मायनों में रोशन होता है।
यह पैग़ाम ख़ास तौर पर नयी पीढ़ी के लिए बहुत अहम है। आज के नौजवान सोशल मीडिया और तिजारती संस्कृति में उलझकर अक्सर अपने दीन और रूहानियत से दूर होते जा रहे हैं। अहमद रज़ा की नातें उन्हें यह सबक देती हैं कि इस्लाम का असल हुस्न सिर्फ़ इबादतगाह की हद तक महदूद नहीं है, बल्कि नबी ﷺ की सीरत-ए-पाक से मोहब्बत करना और उसे अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में उतारना ही इस्लाम का सबसे बड़ा नूर है।
इस तरह अहमद रज़ा की नातिया शायरी मौजूदा दौर में भी हमारी रहनुमाई करती है और हमें यह यक़ीन दिलाती है कि मोहब्बत-ए-रसूल ﷺ हर दौर और हर हालात में ईमान वालों की सबसे बड़ी दौलत है।
निष्कर्ष
दाएक-ए-बख़्शिश महज़ शायरी का एक संग्रह नहीं है, बल्कि यह नबी-ए-करीम ﷺ के लिए मुहब्बत और अकीदत का अमर तराना है। इसमें दर्ज नातें हमें यह एहसास दिलाती हैं कि ईद-ए-मीलादुन्नबी का जश्न केवल बाहरी सजावट, रोशनी या रस्मी जलूस तक सीमित नहीं होना चाहिए। बल्कि इसका असल मक़सद मोहब्बत-ए-रसूल ﷺ को ताज़ा करना और उस मुहब्बत को अमली ज़िंदगी का हिस्सा बनाना है।
अहमद रज़ा ख़ाँ ने अपनी नातों के ज़रिए यह पैग़ाम दिया कि नबी ﷺ की शान में इज़हार-ए-अकीदत सिर्फ़ अल्फ़ाज़ का खेल नहीं, बल्कि दिल और अमल की सच्चाई है। उनकी नातें सुनने वाले को रूहानी कैफ़ियत में डुबो देती हैं, लेकिन यह कैफ़ियत तभी मुकम्मल होती है जब इंसान नबी ﷺ की सीरत, उनके अख़लाक़ और उनकी रहमत को अपनी ज़िंदगी में अपनाता है।
आज की दुनिया, जो भौतिकता और स्वार्थपरता की ओर झुकी हुई है, उसमें हदाएक-ए-बख़्शिश हमें याद दिलाता है कि असली नूर और असली कामयाबी नबी ﷺ की मोहब्बत और उनकी सीरत-ए-तय्यिबा की पैरवी में है। अगर हम इस अमर गीत को सिर्फ़ सुनें ही नहीं, बल्कि उस पर अमल भी करें, तो यह हमारी ज़िंदगी को रौशन कर देगा और हमें दीन व दुनिया दोनों में सरफ़राज़ करेगा।
संदर्भ (References)
- अल-कुरआन, सूरह अल-अंबिया 21:107
- अल-कुरआन, सूरह अल-अहज़ाब 33:56
- अल-तिर्मिज़ी, हदीस नं. 1924
- अहमद रज़ा ख़ाँ, हदाएक-ए-बख़्शिश (उर्दू संस्करण, लखनऊ: मदनी पब्लिकेशन, 1986)
- खान, मसूद अहमद. The Life and Works of Ahmad Raza Khan Barelwi. Karachi: Oxford University Press, 2006.
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