दूसरे धर्मों की रस्मों में शामिल होना: शरीअत के खिलाफ या जायज़?

इस्लाम एक सम्पूर्ण और व्यापक धर्म है, जो अपने अनुयायियों को न केवल इबादत के बारे में मार्गदर्शन देता है, बल्कि जीवन के हर पहलू में दिशा प्रदान करता है। इस्लाम में किसी भी अन्य धर्म की रस्मों में भाग लेने की अनुमति नहीं है, क्योंकि इससे एक मुसलमान के ईमान (विश्वास) और आस्थाओं पर असर पड़ सकता है।

 इस्लाम की पूर्णता और विशिष्टता

क़ुरआन में अल्लाह तआला ने मुसलमानों को स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए हैं कि वे अपने ईमान और इबादतों में किसी भी गैर-मुस्लिम धर्म की पैरवी न करें, क्योंकि इससे इस्लाम की मौलिकता और विश्वास प्रभावित हो सकता है।

अल्लाह तआला इरशाद फरमाता है: ٱلْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِى وَرَضِيتُ لَكُمُ ٱلْإِسْلَـٰمَ دِينًۭا

(سورة المائدة: ٣)

 “आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म पूर्ण कर दिया, तुम पर अपनी नेमत पूरी कर दी और तुम्हारे लिए इस्लाम को धर्म के रूप में पसंद किया।” (सूरत अल-माइदा: 3)

यह आयत स्पष्ट रूप से बताती है कि अल्लाह तआला ने इस्लाम को एक पूर्ण और अंतिम धर्म के रूप में प्रस्तुत किया है।

दूसरे धर्मों की रस्मों में भाग लेना या उनका अनुसरण करना ऐसा है मानो यह स्वीकार करना कि अल्लाह का धर्म अधूरा है — और यह इस्लाम के सिद्धांतों के विपरीत है।

 गैर-मुसलमानों के धार्मिक आचरण में भागीदारी से सावधानी

अल्लाह तआला इरशाद फरमाता है:

يَـٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوا۟ لَا تَتَّخِذُوا۟ بِطَانَةًۭ مِّن دُونِكُمْ لَا يَأْلُونَكُمْ خَبَالًۭا ۚ وَدُّوا۟ مَا عَنِتُّمْ ۚ قَدْ بَدَتِ ٱلْبَغْضَآءُ مِنْ أَفْوَٰهِهِمْ وَمَا تُخْفِى صُدُورُهُمْ أَكْبَرُ ۚ

(سورة آل عمران: 118)

“ऐ ईमान वालों! अपने अलावा किसी को अंतरंग मित्र न बनाओ; वे तुम्हें बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ते; उनके मुँह से बैर झलकता है और जो उनके सीने में छिपा है, वह इससे भी बड़ा है।” (आल-इमरान: 118)

यह आयत बताती है कि मुसलमानों को दूसरों की धार्मिक रस्मों और उनके विश्वासों से दूरी बनाए रखनी चाहिए, ताकि उनके ईमान पर कोई असर न पड़े।

 तौहीद की रक्षा — इस्लामी पहचान का आधार

इस्लामी विश्वास की नींव तौहीद (अल्लाह की एकता) पर है — अर्थात् अल्लाह के साथ किसी को साझी न बनाना।

जब कोई मुसलमान दूसरे धर्म की पूजा या धार्मिक अनुष्ठान में भाग लेता है, तो यह उसकी इस्लामी पहचान को कमजोर करता है और उसके दिल में इस्लाम के प्रति संदेह उत्पन्न कर सकता है।

अल्लाह तआला इरशाद फरमाता है:

قُلْ يَـٰٓأَيُّهَا ٱلْكَـٰفِرُونَ ۝ لَآ أَعْبُدُ مَا تَعْبُدُونَ ۝ وَلَآ أَنتُمْ عَـٰبِدُونَ مَآ أَعْبُدُ ۝ وَلَآ أَنَا۠ عَابِدٌۭ مَّا عَبَدتُّمْ ۝ وَلَآ أَنتُمْ عَـٰبِدُونَ مَآ أَعْبُدُ ۝ لَكُمْ دِينُكُمْ وَلِىَ دِينِ

(سورة الكافرون: 1–6)

 “कहो (ऐ नबी ﷺ): ऐ काफ़िरो! मैं उसकी इबादत नहीं करता जिसकी तुम इबादत करते हो, और न तुम उसकी इबादत करते हो जिसकी मैं करता हूँ... तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म, और मेरे लिए मेरा धर्म।” (सूरत अल-काफ़िरून: 1–6)

यह आयत स्पष्ट रूप से मुसलमानों को आदेश देती है कि वे धार्मिक मामलों में किसी दूसरे धर्म के अनुयायियों की नकल न करें।

अन्य धर्म से नकल करने की मनाही

रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इरशाद फरमाते हैं:

مَنْ تَشَبَّهَ بِقَوْمٍ فَهُوَ مِنْهُمْ

(رواه أبو داود)

 “जो किसी क़ौम की नकल करता है, वह उन्हीं में से है।” (सुनन अबी दाऊद)

यह हदीस इस बात को स्पष्ट करती है कि किसी गैर-मुस्लिम समुदाय की धार्मिक आदतों, वेशभूषा, या पूजा-पद्धतियों की नकल करना इस्लाम में निषिद्ध है।

सामाजिक संबंधों में संतुलन

इस्लाम ने मुसलमानों को गैर-मुसलमानों के साथ अच्छा व्यवहार करने का आदेश दिया है, परंतु उनके धार्मिक कार्यों या पूजा-पद्धतियों में भाग लेने की अनुमति नहीं दी।

अल्लाह तआला इरशाद फरमाता है:

لَا يَنْهَىٰكُمُ ٱللَّهُ عَنِ ٱلَّذِينَ لَمْ يُقَـٰتِلُوكُمْ فِى ٱلدِّينِ وَلَمْ يُخْرِجُوكُم مِّن دِيَـٰرِكُمْ أَن تَبَرُّوهُمْ وَتُقْسِطُوٓا۟ إِلَيْهِمْ ۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلْمُقْسِطِينَ

(سورة الممتحنة: 8)

“अल्लाह तुम्हें उन लोगों से अच्छा व्यवहार करने और न्याय करने से नहीं रोकता, जो धर्म के मामले में तुमसे नहीं लड़ते और तुम्हें तुम्हारे घरों से नहीं निकालते। निस्संदेह, अल्लाह न्याय करने वालों को पसंद करता है।” (सूरत अल-मुमतहना: 8)

यह आयत स्पष्ट करती है कि मुसलमानों को दूसरों के साथ इंसाफ़ और सदाचार से पेश आना चाहिए, लेकिन धार्मिक रस्मों में भाग लेना जायज़ नहीं।

इस्लामी फिक़्ह और विद्वानों का मत

इस्लामी विद्वानों का सर्वसम्मत मत है कि मुसलमानों के लिए दूसरे धर्मों की पूजा-पद्धतियों, त्योहारों, या धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेना हराम (निषिद्ध) है।

फ़तावा-ए-आलमगीरी ने भी स्पष्ट किया कि ऐसे कार्यों से मुसलमान का ईमान कमजोर होता है और समाज में इस्लामी मूल्यों का ह्रास होता है।

 निष्कर्ष

इस्लाम में दूसरे धर्मों की पूजा-पद्धतियों या रस्मों में भाग लेना न केवल ग़लत है, बल्कि एक मुसलमान की धार्मिक निष्ठा और इस्लामी पहचान के लिए भी हानिकारक है।

क़ुरआन और हदीस में स्पष्ट दिशा-निर्देश हैं कि मुसलमानों को अपने ईमान की रक्षा करनी चाहिए, तौहीद पर दृढ़ रहना चाहिए, और किसी भी गैर-इस्लामी रस्म या धार्मिक कार्य से दूर रहना चाहिए।

अल्लाह तआला इरशाद फरमाता है:

وَأَنَّ هَـٰذَا صِرَٰطِى مُسْتَقِيمًۭا فَٱتَّبِعُوهُ وَلَا تَتَّبِعُوا۟ ٱلسُّبُلَ فَتَفَرَّقَ بِكُمْ عَن سَبِيلِهِ

(سورة الأنعام: 153)

“और यही मेरा सीधा रास्ता है, सो तुम उसी का अनुसरण करो और दूसरे रास्तों का अनुसरण न करो, वरना वे तुम्हें उसके रास्ते से भटका देंगे।” (सूरत अल-अनआम: 153)

इसलिए मुसलमानों का कर्तव्य है कि वे अपनी इबादतों और रस्मों में केवल अल्लाह की रज़ा की कोशिश करें और अपने ईमान की मजबूती व इस्लामी पहचान की रक्षा करें।

 संदर्भ सूची

क़ुरआन 

सुनन अबी दाऊद 

फ़तावा-ए-आलमगीरी 

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