ज़कात: खैरात के सिद्धांत और सामाजिक इंसाफ में इसकी भूमिका
परिचय
ज़कात इस्लाम के पांच अरकान में से एक है, जो हर मुसलमान के लिए अनिवार्य है। यह न केवल एक धार्मिक फर्ज है, बल्कि सामाजिक इंसाफ और आर्थिक बराबरी को बढ़ावा देने का एक शक्तिशाली जरिया भी है। ज़कात का अर्थ "पवित्र करना" या "बढ़ाना" है, जो आत्मा को शुद्ध करने के साथ-साथ समाज में गरीबी और असमानता को कम करता है। यह इस्लाम की ऐसी तालीम है जो भाईचारे और एकता को मज़बूत करती है।
ज़कात के सिद्धांत
ज़कात इस्लाम का एक अनिवार्य हिस्सा है, और इसके कुछ बुनियादी सिद्धांत इसे खास बनाते हैं:
ज़कात अल्लाह की रजा के लिए दिल से दी जानी चाहिए, न कि दिखावे या तारीफ के लिए।
अल्लाह तआला कुरान में इरशाद फरमाता है:
وَمَا أُمِرُوا إِلَّا لِيَعْبُدُوا اللَّهَ مُخْلِصِينَ لَهُ الدِّينَ
"और उन्हें सिर्फ यह हुक्म दिया गया कि वे अल्लाह की इबादत करें, पूरी तरह नीयत को खालिस रखते हुए।" (सूरह अल-बय्यिना 98:5)
ज़कात देने वाला अपने दिल को लालच और दुनिया की मोहब्बत से पाक करता है, जो उसे अल्लाह के करीब लाता है।
ज़कात हर उस मुसलमान पर फर्ज है, जिसके पास निसाब (निश्चित मात्रा में दौलत) हो और वह एक साल तक उसके पास रहे। निसाब की मात्रा 87.48 ग्राम सोने, 612.36 ग्राम चांदी, या इसके बराबर धन पर आधारित है, जिस पर 2.5% ज़कात देना अनिवार्य है।[1]
ज़कात के हकदार लोगों के बारे में कुरआन में साफ बताया गया है:
إِنَّمَا الصَّدَقَاتُ لِلْفُقَرَاءِ وَالْمَسَاكِينِ وَالْعَامِلِينَ عَلَيْهَا وَالْمُؤَلَّفَةِ قُلُوبُهُمْ وَفِي الرِّقَابِ وَالْغَارِمِينَ وَفِي سَبِيلِ اللَّهِ وَابْنِ السَّبِيلِ
"ज़कात सिर्फ गरीबों, मिस्कीनों, ज़कात इकट्ठा करने वालों, उन लोगों के लिए है जिनके दिल जीते जाने हैं, गुलामों को आजाद करने, कर्जदारों, अल्लाह के रास्ते में, और मुसाफिरों के लिए है।" (सूरह अत-तौबा 9:60)
ज़कात हर साल देनी होती है, बशर्ते दौलत निसाब से ज्यादा हो और एक साल तक मालिक के पास रहे। यह नियमितता समाज में गरीबी को लगातार कम करने में मदद करती है।
सामाजिक इंसाफ में ज़कात की भूमिका
ज़कात का मुख्य मकसद गरीबी को कम करना है। यह दौलत को समाज में बांटने का जरिया है, जिससे अमीर और गरीब के बीच की खाई कम होती है।
ज़कात अमीर और गरीब के बीच भाईचारे को बढ़ाती है।
رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَالَ: مَثَلُ الْمُؤْمِنِينَ فِي تَوَادِّهِمْ وَتَرَاحُمِهِمْ وَتَعَاطُفِهِمْ مَثَلُ الْجَسَدِ
रसूलल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया: "मोमिनों की मिसाल उनकी मुहब्बत, रहम, और हमदर्दी में एक जिस्म की तरह है।" (सही बुखारी)
ज़कात से दौलत का प्रवाह बढ़ता है, जिससे आर्थिक गतिविधियां बढ़ती हैं और छोटे व्यापारी व गरीब सशक्त बनते हैं।
ज़कात देने वाला लालच से ऊपर उठता है, जिससे उसका नैतिक और आध्यात्मिक विकास होता है।
ऐतिहासिक घटनाएँ
हज़रत अबू बक्र रज़ियल्लाहु अन्हु ने ज़कात न देने वालों के खिलाफ सख्त कदम उठाए। उन्होंने फरमाया, "अगर कोई ज़कात देने से इंकार करता है, तो मैं उससे जंग करूंगा, जैसे मैं काफिरों से करता हूँ।"[2]
उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (717-720 ई.) के दौर में ज़कात का इतना अच्छा इंतज़ाम था कि कोई गरीब नहीं बचा। एक बार उनके गवर्नर ने बताया कि ज़कात देने के लिए कोई हकदार नहीं मिल रहा था।[3]
पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़माने में ज़कात का वितरण पारदर्शी था। एक बार एक शख्स ने ज़कात का सामान (जानवर) लाकर दिया, जिसे पैगंबर ने तुरंत गरीबों में बांटने का हुक्म दिया।
ज़कात और आधुनिक समाज
भारत और पाकिस्तान में ज़कात फाउंडेशन ज़कात के पैसे से स्कूल, अस्पताल, और रोजगार के अवसर बनाते हैं।[4]
ज़कात का पैसा भूकंप, बाढ़, और सूखे जैसी आपदाओं में मदद के लिए इस्तेमाल होता है।
ज़कात से गरीब बच्चों को शिक्षा और ट्रेनिंग दी जाती है, जो समाज में लंबे समय तक बदलाव लाता है।
धार्मिक प्रेरणा
अल्लाह तआला कुरान में फरमाता है:
وَأَقِيمُوا الصَّلَاةَ وَآتُوا الزَّكَاةَ وَارْكَعُوا مَعَ الرَّاكِعِينَ
"और नमाज़ कायम करो, ज़कात दो, और रुकू करने वालों के साथ रुकू करो।" (सूरह अल-बक़रा 2:43)
अल्लाह तआला कुरान में इरशाद फरमाता है:
مَنْ ذَا الَّذِي يُقْرِضُ اللَّهَ قَرْضًا حَسَنًا فَيُضَاعِفَهُ لَهُ أَضْعَافًا كَثِيرَةً
"कौन है जो अल्लाह को अच्छा कर्ज़ दे, तो वह उसे कई गुना बढ़ा देगा।" (सूरह अल-बक़रा 2:245)
رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَالَ: مَنْ تَصَدَّقَ بِعَدْلِ تَمْرَةٍ مِنْ كَسْبٍ طَيِّبٍ فَإِنَّ اللَّهَ يَقْبَلُهَا بِيَمِينِهِ
रसूलल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया: "जो शख्स साफ कमाई से एक खजूर के बराबर भी सदक़ा देता है, तो अल्लाह उसे अपने दाहिने हाथ से कबूल करता है।" (सही बुखारी)
निष्कर्ष
ज़कात इस्लाम का एक अहम अरकान है, जो धार्मिक, सामाजिक, और आर्थिक इंसाफ को बढ़ावा देता है। हज़रत अबू बक्र रज़ियल्लाहु अन्हु और उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ जैसे उदाहरण ज़कात की ताकत को दर्शाते हैं। आज के दौर में ज़कात शिक्षा, स्वास्थ्य, और आपदा राहत में बदलाव ला सकती है। कुरआन और हदीस हमें सिखाते हैं कि ज़कात सिर्फ़ पैसा देना नहीं, बल्कि भाईचारा और इंसाफ लाने का तरीका है। हर मुसलमान को ज़कात को समाज को बेहतर बनाने के मौके के रूप में अपनाना चाहिए।
सन्दर्भ
[1] इमाम नववी, रियादुस सालेहीन, किताब 9, हदीस नं. 218.
[2] इब्न हिशाम, सीरत रसूलल्लाह, खंड 2, पृ. 234.
[3] इब्न कसीर, अल-बिदाया वन-निहाया, खंड 9, पृ. 199.
[4] ज़कात फाउंडेशन ऑफ इंडिया, आधिकारिक वेबसाइट, 2023.
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