इस्लाम में न्याय और आधुनिक न्याय-व्यवस्था: एक तुलनात्मक अध्ययन
परिचय:
न्याय (इंसाफ़) हर समाज की सबसे मज़बूत नींव है। जहाँ न्याय होता है, वहाँ अमन होता है, लोगों के बीच भरोसा पैदा होता है और समाज में भाईचारा बढ़ता है। इस्लाम आने से पहले दुनिया के कई हिस्सों में ज़ुल्म, भेदभाव, ऊँच-नीच, और ताक़तवर लोगों की मनमानी फैली हुई थी। अमीर गरीबों को दबाते थे और कमज़ोरों को किसी तरह का हक़ नहीं मिलता था। ऐसे दौर में इस्लाम ने इंसाफ़ को जीवन का बुनियादी नियम और ईमान का हिस्सा बताया।
इस्लाम में न्याय की बुनियादी शिक्षा
इस्लाम में न्याय सिर्फ अदालत या सरकारी फैसलों तक सीमित नहीं—बल्कि यह इंसान की निजी ज़िंदगी, परिवार, कारोबार, समाज और हुकूमत हर जगह लागू होता है। यानी मुसलमान के लिए न्याय करना एक इबादत जैसा काम है।
क़ुरआन में इंसाफ़ की तालीम बहुत साफ़ और गहरी है। अल्लाह तआला फ़रमाता है:
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُونُوا قَوَّامِينَ بِالْقِسْطِ (अन-निसा 135)
“ऐ ईमान वालों! न्याय पर मज़बूती से क़ायम रहो, और अल्लाह के लिए गवाही दो, चाहे वह तुम्हारे अपने या रिश्तेदारों के खिलाफ़ ही क्यों न हो।”
यह आयत बताती है कि इंसाफ़ को रिश्तों, फायदे और भावनाओं से ऊपर रखा गया है। एक और आयत में दूसरी जगह पर अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाता है:
وَلَا يَجْرِمَنَّكُمْ شَنَآنُ قَوْمٍ عَلَىٰ أَلَّا تَعْدِلُوا (माइदा 8)
“किसी क़ौम की दुश्मनी तुम्हें न्याय से न रोके।” यानी दुश्मनी भी इंसाफ़ को बदल नहीं सकती।
अल्लाह तआला फ़रमाता है:
إِنَّ اللَّهَ يَأْمُرُ بِالْعَدْلِ وَالْإِحْسَانِ(नहल 90)
“अल्लाह न्याय और नेकी का हुक्म देता है।”
शासन के बारे में अल्लाह का हुक्म है:
إِنَّ اللَّهَ يَأْمُرُكُمْ أَنْ تُؤَدُّوا الْأَمَانَاتِ إِلَىٰ أَهْلِهَا وَإِذَا حَكَمْتُمْ بَيْنَ النَّاسِ أَنْ تَحْكُمُوا بِالْعَدْلِ (अन-निसा 58)
“अल्लाह तुम्हें हुक्म देता है कि अमानतों (सौंपे गए अधिकारों, जिम्मेदारियों और भरोसे की चीज़ों) को उनके हक़दारों तक सही तरह पहुँचा दो। और जब लोगों के बीच फैसला करो, तो पूरा न्याय करते हुए फैसला करो।”
पैग़म्बर ﷺ से भी कहा गया:
وَأُمِرْتُ لِأَعْدِلَ بَيْنَكُمُ (शूरा 15)
“मुझे तुम्हारे बीच इंसाफ़ करने का हुक्म दिया गया है।” इन आयात से पता चलता है कि इंसाफ़ इस्लाम का बहुत ऊँचा सिद्धांत है।
हदीसों में न्याय की तालीम
हदीसों में न्याय का मामला और भी साफ़ और विस्तृत मिलता है। रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया
سَبْعَةٌ يُظِلُّهُمُ اللَّهُ فِي ظِلِّهِ، يَوْمَ لَا ظِلَّ إِلَّا ظِلُّهُ:
إِمَامٌ عَادِلٌ،
وَشَابٌّ نَشَأَ فِي عِبَادَةِ اللَّهِ،
وَرَجُلٌ قَلْبُهُ مُعَلَّقٌ فِي الْمَسَاجِدِ،
وَرَجُلَانِ تَحَابَّا فِي اللَّهِ اجْتَمَعَا عَلَيْهِ وَتَفَرَّقَا عَلَيْهِ،
وَرَجُلٌ دَعَتْهُ امْرَأَةٌ ذَاتُ مَنْصِبٍ وَجَمَالٍ فَقَالَ إِنِّي أَخَافُ اللَّهَ،
وَرَجُلٌ تَصَدَّقَ بِصَدَقَةٍ فَأَخْفَاهَا حَتَّى لَا تَعْلَمَ شِمَالُهُ مَا تُنْفِقُ يَمِينُهُ،
وَرَجُلٌ ذَكَرَ اللَّهَ خَالِيًا فَفَاضَتْ عَيْنَاهُ
(सहीह बुख़ारी)
पैग़म्बर ﷺ ने फ़रमाया:
“सात तरह के लोग होंगे जिनको अल्लाह अपने साये (छाया) में जगह देगा, उस दिन जब अल्लाह के साये के अलावा कोई साया नहीं होगा:
- न्यायप्रिय शासक (इमाम आदिल)।
- वह नौजवान जो अल्लाह की इबादत में पला-बढ़ा हो।
- वह आदमी जिसका दिल मस्जिदों से जुड़ा रहता हो।
- दो ऐसे लोग जो अल्लाह की खातिर एक-दूसरे से मुहब्बत रखें — उसी के लिए मिलें और उसी के लिए जुदा हों।
- वह आदमी जिसे कोई खूबसूरत और रसूखदार औरत ग़लत काम की तरफ बुलाए और वह कह दे: “मैं अल्लाह से डरता हूँ।”
- वह व्यक्ति जो इतनी छुपकर सदक़ा करे कि बाएँ हाथ को भी पता न चले कि दाएँ हाथ ने क्या खर्च किया।
- वह आदमी जो तन्हाई में अल्लाह को याद करे और उसकी आँखों से आँसू बह पड़ें।”
इस हदीस में सबसे पहले जिस व्यक्ति का जिक्र आया है वह है:
“इमामुन आदिल” — न्याय करने वाला नेता या हाकिम
इसका मतलब:
- वह शरीयत या कानून के मुताबिक इंसाफ़ करे।
- ताक़त, रुतबा या रिश्वत के असर से दूर रहे।
- अमीर-गरीब, मित्र-दुश्मन सबके साथ बराबरी करे।
- किसी पर ज़ुल्म न करे, न होने दे।
- जनता के हक़ की रक्षा करे।
- अपने फैसलों में ईमानदारी और जिम्मेदारी दिखाए।
क्यों उसे सबसे पहला दर्जा मिला?
क्योंकि:
- उसका फैसला पूरी समाज पर असर डालता है।
- उसकी न्यायप्रियता से देश में अमन, सुरक्षा और बरकत आती है।
- उसकी नाइंसाफ़ी से सबसे ज़्यादा नुकसान फैलता है।
इसीलिए अल्लाह उसे क़ियामत के दिन अपनी ख़ास रहमत और कर्रमत देगा।
बच्चों के बारे में रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया
«اتَّقُوا اللَّهَ وَاعْدِلُوا بَيْنَ أَوْلَادِكُمْ»
“अल्लाह से डरो और अपने बच्चों के बीच बराबरी करो।”
एक और हदीस में आता है:
«إِنَّ الْمُقْسِطِينَ عِندَ اللَّهِ عَلَىٰ مَنَابِرَ مِنْ نُورٍ»
“न्याय करने वाले अल्लाह के यहाँ नूर के मीनारों पर होंगे।”
एक और हदीस में आता है:
عَنِ النَّبِيِّ ﷺ أَنَّهُ قَالَ: يَقُولُ اللَّهُ: يَا عِبَادِي! إِنِّي حَرَّمْتُ الظُّلْمَ عَلَى نَفْسِي وَجَعَلْتُهُ بَيْنَكُمْ مُحَرَّمًا فَلَا تَظَالَمُوا (सहीह मुस्लिम)
पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से रिवायत है, उन्होंने कहा कि अल्लाह (ताअला) फरमाता हैं:
"हे मेरे बंदों! मैंने अन्याय को अपने ऊपर हराम कर दिया और इसे तुम लोगों के बीच भी हराम कर दिया, इसलिए आपस में अन्याय मत करो।"
क़ाज़ियों (जजों) के बारे में हदीस बताती है कि जो व्यक्ति इल्म और इंसाफ़ से फैसला करे वही सफल है, और जो बिना इल्म या नाइंसाफ़ी करे वह गुनहगार होगा। इससे पता चलता है कि इस्लाम न्याय को कितना ज़िम्मेदाराना मामला मानता है।
इस्लाम में इंसाफ़ सिर्फ सज़ा देने का नाम नहीं, बल्कि समाज में संतुलन, अमन और भलाई पैदा करने का तरीका है। इस्लाम अमीर-गरीब, नेता-जनता, सबको कानून के सामने बराबर रखता है। पैग़म्बर ﷺ ने तो यहाँ तक कहा कि अगर उनकी बेटी फ़ातिमा भी चोरी करे, तो वह भी सज़ा से नहीं बचेगी — यह इंसाफ़ का सबसे ऊँचा दर्ज़ा है।
आधुनिक न्याय-व्यवस्था
आज की आधुनिक न्याय-व्यवस्था संविधान, कानून, मानवाधिकार और स्वतंत्र अदालतों पर आधारित है। इसमें:
- सभी नागरिक बराबर माने जाते हैं,
- हर व्यक्ति को वकील और अपील का हक़ मिलता है,
- सरकार भी कानून के नीचे होती है,
- फैसले सबूत और कानूनी प्रक्रिया के आधार पर होते हैं।
हालाँकि कई बार मुक़दमे लंबे चलते हैं, जिससे न्याय में देर होती है, मगर मानवाधिकारों के लिए ये प्रक्रियाएँ ज़रूरी मानी जाती हैं।
तुलनात्मक अध्ययन और सामाजिक प्रभाव
इस्लाम और आधुनिक न्याय-व्यवस्था दोनों में कई समान बातें हैं:
- दोनों न्याय और बराबरी पर ज़ोर देते हैं।
- दोनों अत्याचार और भेदभाव को गलत मानते हैं।
- दोनों मानव गरिमा की रक्षा को महत्वपूर्ण समझते हैं।
मुख्य अंतर यह है कि इस्लाम का न्याय अल्लाह के हुक्म और नैतिकता पर आधारित है, जबकि आधुनिक न्याय इंसानी कानून और प्रक्रियाओं पर चलता है, जो समय के साथ बदलते रहते हैं।
इस्लाम तेज़ और नैतिक न्याय चाहता है, जबकि आधुनिक व्यवस्था में प्रक्रियाएँ लंबी होने से देर हो सकती है।
अगर देखा जाए तो इस्लाम की नैतिकता और आधुनिक व्यवस्था की संरचना को मिलाकर एक बेहतरीन और संतुलित न्याय-व्यवस्था बन सकती है।
इस्लाम कहता है कि इंसाफ़ हर जगह होना चाहिए — घर में, बच्चों के साथ, पत्नी के साथ, पड़ोसी के साथ, व्यापार में, अदालतों में, यहाँ तक कि दुश्मन के साथ भी। आधुनिक न्याय-व्यवस्था भी नागरिक अधिकारों की रक्षा करती है और तानाशाही से बचाती है।
रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:
«كُلُّكُمْ رَاعٍ وَمَسْئُولٌ عَنْ رَعِيَّتِهِ، فَالْإِمَامُ رَاعٍ وَهُوَ مَسْئُولٌ عَنْ رَعِيَّتِهِ، وَالرَّجُلُ فِي أَهْلِهِ رَاعٍ وَهُوَ مَسْئُولٌ عَنْ رَعِيَّتِهِ، وَالْمَرْأَةُ فِي بَيْتِ زَوْجِهَا رَاعِيَةٌ وَهِيَ مَسْئُولَةٌ عَنْ رَعِيَّتِهَا، وَالْخَادِمُ فِي مَالِ سَيِّدِهِ رَاعٍ وَهُوَ مَسْئُولٌ عَنْ رَعِيَّتِهِ» (أخرجه البخاري)
"तुम में से हर एक एक रक्षक है और अपनी देखभाल के लिए जिम्मेदार है। इमाम (शासक) रक्षक है और अपनी देखभाल के लिए जिम्मेदार है। आदमी अपने परिवार का रक्षक है और अपनी देखभाल के लिए जिम्मेदार है। औरत अपने पति के घर में रक्षक है और अपनी देखभाल के लिए जिम्मेदार है। और सेवक अपने मालिक की संपत्ति में रक्षक है और अपनी देखभाल के लिए जिम्मेदार है।" (इसे अल-बुखारी ने वर्णित किया है)
निष्कर्ष
कुल मिलाकर इस्लाम में न्याय का सिद्धांत बहुत ऊँचा, संतुलित और इंसानियत पर आधारित है। आधुनिक न्याय-व्यवस्था भी बराबरी और मानवाधिकारों को मूल मानती है। इस्लाम नैतिक (ethical) न्याय देता है और आधुनिक कानून प्रक्रिया आधारित न्याय पेश करता है।
अगर दोनों के अच्छे पहलू मिल जाएँ तो समाज में सुरक्षित न्याय-व्यवस्था स्थापित हो सकती है। न्याय वही चीज़ है जो किसी भी समाज को तरक्की, अमन और मज़बूती की ओर ले जाती है — और इस्लाम तथा आधुनिक समाज दोनों इसकी अहमियत को मानते हैं।
सन्दर्भ:
- अन-निसा— आयत58
- अल-माइदा— आयत 8
- अन-नहल— आयत 90
- अश-शूरा— आयत 15
- सहीह अल-बुख़ारी
- सहीह मुस्लिम
लेखक:
आज़म रज़ा, कक्षा 11 का छात्र, क़ुरतुबा, किशनगंज, बिहार
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