अहमद सरहिंदी: इस्लामी सोच के एक रूहानी सुधारक

परिचय

अहमद अल-फ़ारूकी अल-सिरहिंदी, जिन्हें मुजद्दिद अल्फ़-ए सानी कहा जाता है, इस्लाम के एक बहुत बड़े आलिम (विद्वान) और सूफ़ी बुज़ुर्ग थे। उनका जन्म 1564 ईस्वी में पंजाब के सिरहिंद नाम के शहर में हुआ। उन्होंने सत्रहवीं सदी में इस्लाम की सोच और रूहानी तालीम को फिर से ज़िंदा करने में बड़ा काम किया। इसलिए उन्हें “मुजद्दिद” कहा गया — यानी ऐसा शख़्स जो दीन (धर्म) को दोबारा ज़िंदा और ताज़ा करता है।

शेख अहमद सरहिंदी एक इल्मी (विद्वान) खानदान में पैदा हुए थे। उनके घराने में इस्लामी तालीम और इल्म का बहुत चलन था। उन्होंने कुरआन, हदीस, फ़िक़्ह (इस्लामी क़ानून) और रूहानियत (आध्यात्मिकता) का गहरा अध्ययन किया। इस्लाम को समझने का उनका अंदाज़ बहुत अनोखा और असरदार था। इसलिए उन्हें ऐसा शख़्स माना गया जिसने इस्लाम को फिर से इल्मी (बौद्धिक) और रूहानी (आध्यात्मिक) दोनों पहलुओं में मज़बूत किया।

इल्मी ज़िंदगी और तालीमी सफ़र

अहमद सरहिंदी का जन्म 26 जून 1564 को सिरहिंद में हुआ। बचपन से ही वे बहुत ज़हीन (तेज़ दिमाग़) थे और उन्हें दीन की तालीम में गहरी दिलचस्पी थी। उनकी शुरुआती तालीम उनके वालिद शेख अब्दुल अहद ने दी, जो ख़ुद एक बड़े आलिम थे।

उन्होंने इस्लाम के अलग-अलग विषयों को सीखा और फिर सूफ़ी सिलसिलों की रूहानी बातों में दिलचस्पी लेने लगे।

उस ज़माने में भारत में मुस्लिम समाज को कई मुश्किलें थीं। बादशाह अकबर ने "दीन-ए इलाही" नाम से एक नया मज़हब बनाने की कोशिश की थी, जिसमें सब धर्मों की बातें मिलाई जा रही थीं। शेख अहमद सरहिंदी को यह बात मंज़ूर नहीं थी। उन्होंने इस्लाम की असल पहचान और शरीअत की पवित्रता की हिफ़ाज़त के लिए आवाज़ उठाई। वे इस बात के सख़्त ख़िलाफ़ थे कि इस्लाम को दूसरे मज़हबों या फ़लसफ़ों (दर्शन) के साथ मिलाया जाए।

उन्होंने अपनी ज़िंदगी में बहुत सी किताबें लिखीं। उनकी मशहूर तस्नीफ़ें (रचनाएँ) हैं —
“मकतूबात” (यानी उनके लिखे हुए ख़तों का मजमुआ) और “ख़ुतबात-ए-मुजद्दिदिया” (उनके भाषणों और वाज़ों का संग्रह)।

उनका ये यक़ीन था कि हर सदी की शुरुआत में एक “मुजद्दिद” आएगा, जो इस्लामी तालीम को फिर से ज़िंदा करेगा। उन्होंने अपने आपको “मुजद्दिद-ए-अल्फ़-ए-सानी” यानी दूसरी हिजरी सहस्राब्दी का नवीनीकरण करने वाला बताया। उनके विचारों और इल्मी कामों ने बहुत से लोगों को मुतास्सिर किया और उनका असर हिंदुस्तान से निकलकर दूसरे मुल्कों तक पहुँचा।

उनका इंतिक़ाल 28 दिसंबर 1624 को सिरहिंद में हुआ। आज भी उनके अफ़कार (विचार) और रूहानी तालीम मुसलमानों को इस्लाम की सच्ची राह पर चलने की राह दिखाती हैं।

इस्लामी सोच में सुधार और उनका योगदान

शेख अहमद सरहिंदी ने सूफ़ीवाद और फ़लसफ़ा दोनों में अहम सुधार किए।

उन्होंने सूफ़ीवाद में यह बात सामने रखी कि असल सूफ़ी वही है जो शरीअत (इस्लामी क़ानून) की पूरी पाबंदी करे। उन्होंने “मुरशिद” यानी रूहानी उस्ताद की अहमियत पर भी ज़ोर दिया, जो अपने “मुरीद” (शागिर्द) को सही रास्ते पर चलाता है।

उनके फ़लसफ़ी अफ़कार में “अस्तित्व” (वजूद) और “ख़ालिक़ व मख़लूक़” यानी ख़ुदा और उसकी मख़लूक़ (सृष्टि) के रिश्ते पर गहरी बात की गई।

उन्होंने सूफ़ीवाद को इस्लाम की असल तालीम से जोड़े रखा ताकि लोग शरीअत से दूर न हों।

सूफ़ीवाद पर उनकी आलोचना

शेख अहमद सरहिंदी सूफ़ीवाद के ख़िलाफ़ नहीं थे — बल्कि ख़ुद एक बड़े सूफ़ी थे। मगर उन्होंने उन सूफ़ियों की आलोचना की जो शरीअत की हदों को पार कर रहे थे या दूसरे धर्मों की बातों को इस्लाम में मिला रहे थे।

उन्होंने “वहदतुल वुजूद” (सारे वजूद की एकता) की तशरीह (व्याख्या) इस तरह की कि अल्लाह और मख़लूक़ के बीच अलग-अलग दर्जे बने रहें। उनका कहना था कि अल्लाह की ज़ात सबसे ऊँची और बेमिसाल है, और उसकी मख़लूक़ उससे अलग है।

उनके बाद उनके ख़यालात को उनके चाहने वालों ने आगे फैलाया, ख़ास तौर पर नक़्शबंदी सिलसिले में। बाद में उनके विचारों का असर देओबंदी आंदोलन जैसे सुधारवादी आंदोलनों में भी दिखाई दिया।

विरासत और असर

शेख अहमद सरहिंदी का इंतिक़ाल तो 1624 में हुआ, लेकिन उनका इल्मी और रूहानी असर आज तक बाक़ी है।

उन्होंने इस्लाम को उसकी असल सूरत में मज़बूत करने की कोशिश की — शरीअत पर अमल, इबादत में ख़ुलूस (ईमानदारी), और रूहानी तरक़्क़ी (आध्यात्मिक उन्नति) की तालीम दी।

उनकी तालीम ने नक़्शबंदी सिलसिला को नई जान दी। आज भी उनके “मकतूबात” और दूसरे लिखे हुए नसीहतनामे दुनिया भर के आलिमों और सूफ़ियों के लिए रहनुमाई का ज़रिया हैं।

वो हमेशा याद रखे जाएंगे — एक ऐसे रूहानी इस्लाही (सुधारक) के तौर पर जिन्होंने इस्लाम को फिर से ज़िंदा किया और लोगों के दिलों में ईमान की रौशनी जगाई।

संदर्भ

Alam, Muzaffar. “The Mughals, the Sufi Shaikhs and the Formation of the Akbari Dispensation”

Friedmann, Yohanan and Haar, J. G. J. Ter. “Follower and Heir of the Prophet: Shaykh Ah}mad Sirhindī (1564-1624) as Mystic”, Journal of the American Oriental Society 114, no. 3, 1994.

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