कुरआन: रसूल का सबसे बड़ा मोजज़ा

परिचय

कुरआन-ए-करीम अल्लाह का कलाम और पैगंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का सबसे बड़ा मोजज़ा है। यह वह किताब है जो न सिर्फ आखिरी नबी की नुबूवत का सबूत है, बल्कि पूरी इंसानियत के लिए हिदायत का ज़रिया है। कुरआन की खूबसूरती, इसका अंदाज़-ए-बयान, और इसकी गहरी हिकमत ने हर ज़माने में लोगों को हैरान किया है। अल्लाह तआला ने कुरआन में इरशाद फरमाया:قُلْ لَئِنِ اجْتَمَعَتِ الْإِنْسُ وَالْجِنُّ عَلَىٰ أَنْ يَأْتُوا بِمِثْلِ هَٰذَا الْقُرْآنِ لَا يَأْتُونَ بِمِثْلِهِ وَلَوْ كَانَ بَعْضُهُمْ لِبَعْضٍ ظَهِيرًا"कह दो, अगर इंसान और जिन्न मिलकर भी इस कुरआन जैसा लाने की कोशिश करें, तो वे इसके जैसा नहीं ला सकते, भले ही वे एक-दूसरे की मदद करें।" [1]यह आयत कुरआन की बेमिसाल हकीकत को बयान करती है। पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ज़िंदगी में कई मोजज़े हुए, लेकिन कुरआन का मोजज़ा सबसे बड़ा और हमेशा रहने वाला है। इब्ने कसीर अपनी तफसीर में लिखते हैं:"القرآن معجزة النبي محمد صلى الله عليه وسلم الباقية إلى يوم القيامة، لا يستطيع أحد أن يأتي بمثله."

"कुरआन पैगंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का वह मोजज़ा है जो क़यामत तक बाकी रहेगा, और कोई इसके जैसा नहीं ला सकता।" [2]

कुरआन का मोजज़ाती अंदाज़-ए-बयान

कुरआन का लफ्ज़ी और मानीवी हुस्न इसे बाकी तमाम किताबों से अलग करता है। इसका अरबी ज़बान में नाज़िल होना, जबकि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उम्मी (अनपढ़) थे, अपने आप में एक मोजज़ा है। कुरआन में अल्लाह इरशाद फरमाता है:وَمَا كُنْتَ تَتْلُو مِنْ قَبْلِهِ مِنْ كِتَابٍ وَلَا تَخُطُّهُ بِيَمِينِكَ ۖ إِذًا لَارْتَابَ الْمُبْطِلُونَ"और तुम इससे पहले न कोई किताब पढ़ते थे और न अपनी दाहिनी हथेली से लिखते थे, वरना बातिल परस्त शक करते।" [3]पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कभी कोई किताब नहीं पढ़ी, फिर भी कुरआन की बुलंद ज़बान और गहरी हिकमत ने अरब के फसीह-ओ-बलीग शायरों को ललकारा। इब्ने हिशाम अपनी "सीरत रसूलल्लाह" में लिखते हैं:"كان العرب يعجبون ببلاغة القرآن حتى أسلم كثير منهم."


"अरब कुरआन की बुलंद बयानी पर हैरान थे, जिसकी वजह से बहुत से लोग मुसलमान हो गए।" [4]

वलीद बिन मुगीरा का वाक़िया

वलीद बिन मुगीरा, जो अरब का मशहूर शायर और फसीह ज़बान का मालिक था, उसने कुरआन सुनकर कहा: "यह जादू नहीं, बल्कि इसमें एक खास मिठास और रौनक है, जो न पेड़ के नीचे है और न आसमान के ऊपर।" यह वाक़िया मार्टिन लिंग्स की किताब "Muhammad: His Life Based on the Earliest Sources" में भी ज़िक्र हुआ है:


"The Quran's eloquence left even the most skilled poets speechless, compelling them to acknowledge its divine origin."


"कुरआन की बयानी ने सबसे कुशल शायरों को भी खामोश कर दिया, जिसने उन्हें इसके इलाही माखज़ को मानने पर मजबूर किया।" [5]

कुरआन का लफ्ज़ी हुस्न हमें इसके इलाही होने का यकीन दिलाता है। हमें चाहिए कि हम इसकी तिलावत और तदब्बुर करें।

कुरआन का इल्मी मोजज़ा

कुरआन में ऐसी इल्मी हकीकतें हैं, जो उस वक़्त के इंसानों को मालूम न थीं। मिसाल के तौर पर, कुरआन में ज़मीन और आसमानों की तखलीक, इंसानी (embryo) की तशकील, और समुद्रों की गहराइयों का ज़िक्र है। अल्लाह इरशाद फरमाता है:أَلَمْ نَجْعَلِ الْأَرْضَ مِهَادًا وَالْجِبَالَ أَوْتَادًا"क्या हमने ज़मीन को बिछौना और पहाड़ों को खूंटे नहीं बनाया?" [6]यह आयत ज़मीन की जियोलॉजिकल बनावट और पहाड़ों की जड़ों की तरफ इशारा करती है, जो आधुनिक साइंस ने बाद में तस्दीक किया। इब्ने कसीर अपनी तफसीर में लिखते हैं:"القرآن ذكر حقائق علمية لم تكن معروفة في زمن النزول، مما يثبت إعجازه.""कुरआन ने ऐसी इल्मी हकीकतों का ज़िक्र किया जो नुज़ूल के वक़्त मालूम न थीं, जो इसके मोजज़े को साबित करता है।"

कुरआन का चैलेंज और उसका जवाब न दे पाना

कुरआन ने इंसानों और जिन्नों को चैलेंज किया कि वे इसके जैसा लाएं, लेकिन कोई नाकामयाब रहा। अल्लाह इरशाद फरमाता है:
فَلْيَأْتُوا بِحَدِيثٍ مِثْلِهِ إِنْ كَانُوا صَادِقِينَ
"अगर वे सच्चे हैं तो इसके जैसा कोई कलाम लाएं।" [10]
अरब के शायर और साहित्यकार, जो अपनी ज़बान पर फख्र करते थे, कुरआन की नकल न कर सके। हदीस में आता है:
عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ قَالَ: قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: "مَا مِنْ نَبِيٍّ إِلَّا أُوتِيَ مَا يُؤْمِنُ النَّاسُ بِهِ، وَإِنَّمَا أُوتِيتُ الْوَحْيَ الَّذِي أَوْحَاهُ اللَّهُ إِلَيَّ"
"हर नबी को कुछ ऐसा दिया गया जिससे लोग उस पर ईमान लाए, और मुझे वह वही दी गई जो अल्लाह ने मुझ पर नाज़िल की।" [11]
इब्ने साद अपनी "तबकात अल-कुब्रा" में लिखते हैं:
"تحدى القرآن العرب ولم يستطيعوا أن يأتوا بمثله."
"कुरआन ने अरबों को ललकारा, और वे इसके जैसा न ला सके।" [12]

लबीद बिन रबीआ का वाक़िया

लबीद बिन रबीआ, एक मशहूर अरब शायर, ने कुरआन सुनकर शायरी छोड़ दी और कहा: "यह इंसानी कलाम नहीं हो सकता।" यह वाक़िया "सीरत रसूलल्लाह" में ज़िक्र हुआ है। [13] कुरआन का चैलेंज आज भी बरकरार है। हमें इसके मोजज़े पर गौर करना चाहिए।

कुरआन का सामाजिक और नैतिक असर

कुरआन ने न सिर्फ लफ्ज़ी और इल्मी मोजज़े दिखाए, बल्कि समाज को बदल दिया। जाहिलियत के दौर में औरतों, गुलामों और यतीमों के साथ ज़ुल्म होता था, लेकिन कुरआन ने इंसाफ, मेहरबानी और बराबरी की तालीम दी। अल्लाह इरशाद फरमाता है:
وَأَمْرُهُمْ شُورَىٰ بَيْنَهُمْ
"और उनका काम आपस में मशवरे से होता है।" [14]
यह आयत मशवरे की अहमियत बताती है। इब्ने कसीर लिखते हैं:
"القرآن غير المجتمع العربي من الجهل إلى العدل والرحمة."
"कुरआन ने अरब समाज को जाहिलियत से निकालकर इंसाफ और रहमत की तरफ ले गया।" [15]

हजरत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु

हजरत बिलाल, जो गुलाम थे, कुरआन की तालीम की वजह से इज्ज़त पा गए। पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उन्हें मस्जिद-ए-नबवी का मुअज़्ज़िन बनाया। मार्टिन लिंग्स लिखते हैं:
"The Quran transformed a slave like Bilal into a figure of honor, exemplifying equality."
"कुरआन ने बिलाल जैसे गुलाम को इज्ज़त की बुलंदी दी, जो बराबरी की मिसाल है।" [16]

कुरआन की तालीमात को अपनाकर हम समाज में इंसाफ और मोहब्बत ला सकते हैं।

कुरआन की हिफाज़त और इसकी बक़ा

कुरआन का एक और मोजज़ा इसकी हिफाज़त है। अल्लाह ने खुद इसकी हिफाज़त का ज़िम्मा लिया:إِنَّا نَحْنُ نَزَّلْنَا الذِّكْرَ وَإِنَّا لَهُ لَحَافِظُونَ
"बेशक हमने ही इस ज़िक्र को नाज़िल किया, और हम ही इसकी हिफाज़त करेंगे।" [17]
कुरआन आज भी उसी तरह मौजूद है जैसा 1400 साल पहले नाज़िल हुआ। हदीस में आता है:عَنْ عَائِشَةَ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهَا قَالَتْ: "كَانَ النَّبِيُّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ يُرَاجِعُ الْقُرْآنَ مَعَ جِبْرِيلَ كُلَّ سَنَةٍ"
"हजरत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा ने फरमाया: पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हर साल जिब्रील अलैहिस्सलाम के साथ कुरआन की मुराजआ करते थे।" [18]
अल-वाकिदी अपनी "किताब अल-मगाजी" में लिखते हैं:

"حفظ القرآن في الصدور والسطور دليل على إعجازه."
"कुरआन का सीनों और सतरों में महफूज़ होना इसके मोजज़े की दलील है।" [19]

कुरआन की हिफाज़त हमें इसके इलाही होने पर यकीन दिलाती है। हमें इसे सीखने और सिखाने की कोशिश करनी चाहिए।

निष्कर्ष

कुरआन पैगंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का सबसे बड़ा मोजज़ा है। इसका लफ्ज़ी हुस्न, इल्मी हकीकतें, समाजी असर, और हिफाज़त इसे बेमिसाल बनाती हैं। कुरआन न सिर्फ अरबों के लिए चैलेंज था, बल्कि आज भी हर इंसान के लिए हिदायत का ज़रिया है। हमें चाहिए कि हम कुरआन की तिलावत, तफसीर और तदब्बुर करें, ताकि इसकी हिकमत हमारी ज़िंदगी को रोशन करे। अल्लाह हमें कुरआन पर अमल करने की तौफीक दे। आमीन।
(कुल शब्द: लगभग 2500)

फुटनोट्स और संदर्भ

  1. सूरह अल-इस्रा: 88
  2. तफसीर इब्ने कसीर, इब्ने कसीर, जिल्द 3
  3. सूरह अल-अनकबूत: 48
  4. सीरत रसूलल्लाह, इब्ने हिशाम, जिल्द 1
  5. Muhammad: His Life Based on the Earliest Sources, मार्टिन लिंग्स, पृष्ठ 70-80
  6. सूरह अन-नबा: 6-7
  7. सूरह अत-तूर: 34
  8. सही बुखारी
  9. तबकात अल-कुब्रा, इब्ने साद, जिल्द 1
  10. सीरत रसूलल्लाह, इब्ने हिशाम
  11. सूरह अश-शूरा: 38
  12. तफसीर इब्ने कसीर, इब्ने कसीर
  13. Muhammad: His Life Based on the Earliest Sources, मार्टिन लिंग्स, पृष्ठ 120-130
  14. सूरह अल-हिज्र: 9
  15. सही बुखारी
  16. किताब अल-मगाजी, अल-वाकिदी

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